कभी हुआ करते होंगे
शहर
कंक्रीट के, पत्थरों के
अब वे शीशों के हो गए हैं
रंग-बिरंगे शीशे
अब शहर बनाने लगे हैं
सुविधा रहती है बहुत
अंदर बैठे लोगों को
वे देख सकते हैं
बाहर की दुनिया
और खुद
लोगों की नजरों से
बचे रह सकते हैं !
अब कर सकते हैं
दिन के उजाले में वे
काले काम
गॉगल्स चढ़ाने की जरूरत भी
नहीं रही
अब उन्हें !
हाँ, रात जरूर सावधान रहना होगा उन्हें
दिख जाएगा
उनका संपूर्ण नंगापन
बत्ती जलाने से पहले
उन्हें सौ बार सोचना होगा।
अब पत्थरों के नहीं रहे शहर
लोगों की पथरीली संवेदनहीनता को
ढके रखने को
दीवारें नहीं रहीं
अब ईंटों की !